‘भगतसिंह जनअधिकार यात्रा’ के अन्तर्गत विशेष अभियान
ईवीएम हटाओ!
अपने बुनियादी जनवादी अधिकार की हिफ़ाज़त के लिए आगे आओ!
चुनावों में पारदर्शिता के लिए देशव्यापी जनान्दोलन संगठित करना होगा!
दोस्तो, साथियो!
चुनावों में ईवीएम के इस्तेमाल की मौजूदा व्यवस्था पर सन्देह की गन्ध पूरे देश की हवा में भर चुकी है। यह बेवजह नहीं है। चुनाव आयोग की सफ़ाइयों और आश्वस्तियों पर अब यक़ीन करने वाले विरले ही मिलते हैं।
बेरोज़गारी, महँगाई, शिक्षा, चिकित्सा, आवास आदि बुनियादी सवालों पर मोदी सरकार फ़ेल है। इसी वजह से वह नये सिरे से साम्प्रदायिक आधार पर आम आबादी को बाँटने का काम कर रही है। लेकिन इसके बावजूद वह आने वाले चुनावों में जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है। साम्प्रदायिक फ़ासिस्ट भाजपा सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध देश के तेरह राज्यों में तीन महीने तक चलने वाली भगतसिंह जनअधिकार यात्रा के दौरान हम सभी ने शिद्दत के साथ यह बात महसूस की कि मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियाँ देश को विनाश के ज्वालामुखी की ओर धकेलती जा रही हैं। उसकी नीतियों के ख़िलाफ़ नब्बे प्रतिशत मेहनतकश जनता और बहुसंख्यक आम मध्यवर्गीय आबादी के बीच पूरे देश में सुलगती हुई आग एक विस्फोटक शक़्ल अख़्तियार करने की ओर आगे बढ़ रही है। हाल में कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने चुनावों में ईवीएम के द्वारा धाँधली के उस व्यापक सन्देह को और अधिक गहरा बना दिया है जो विशेषकर 2019 के आम चुनावों के बाद से ही गोदी मीडिया और विराट भाजपाई प्रचारतन्त्र की हरचन्द कोशिशों के बावजूद देशव्यापी चर्चा का एक विषय बन चुका था। आज इस बात के स्पष्ट तथ्य और तर्क मौजूद हैं कि क्यों ईवीएम से होने वाले चुनाव क़तई भरोसे के क़ाबिल नहीं हैं।
आज ईवीएम के ज़रिये आम नागरिकों के सबसे बुनियादी जनवादी अधिकारों में से एक पर, यानी एक पारदर्शी चुनाव में वोट डालकर अपने प्रतिनिधि को चुनने के जनवादी अधिकार पर, एक अन्धेरगर्दी भरी डाकाज़नी की रही है। इसलिए ईवीएम के विरुद्ध संगठित जनसंघर्ष की अविराम मुहिम चलाना हमारी बेहद ज़रूरी फ़ौरी ज़िम्मेदारी है। यह हर उस नागरिक की ज़िम्मेदारी है जो हमारे रहे-सहे, अतिसीमित जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त को लेकर चिन्तित है।
हालत यह है कि इस मसले पर केन्द्रीय चुनाव आयोग (केचुआ) की बोदी सफ़ाइयों पर, देश की न्यायपालिका पर, गोदी मीडिया के प्रचारों पर व्यापक जनता का बहुलांश अपना भरोसा खो चुका है। भाजपा व मोदी सरकार जिस तरह ईवीएम हटाने की माँग को हठधर्मी तरीक़े से बार-बार नकार रहे हैं और वोटर को मिलने वाली रसीद के साथ सौ प्रतिशत वीवीपैट वेरीफ़िकेशन की माँग को भी नज़रन्दाज़ कर रहे हैं, उससे जनता का ईवीएम पर शक़ और भी पुख़्ता हो गया है। मोदी सरकार के रवैये से साफ़ ज़ाहिर है कि दाल में कुछ काला नहीं है, बल्कि पूरी दाल ही काली है।
यह सच है कि मात्र ईवीएम के हटने से ही यह व्यवस्था आम जनता के सच्चे प्रतिनिधियों के हाथों में नहीं आ जायेगी और जनता का वास्तविक लोकतन्त्र बहाल नहीं हो जायेगा। पूँजी की सत्ता के समूल नाश के साथ ही यह सम्भव है और यह लड़ाई यक़ीनन एक लम्बी लड़ाई है। लेकिन फिर भी मौजूदा व्यवस्था में एक पारदर्शी जनवादी चुनाव हमारा बुनियादी अधिकार है। इतिहास बताता है कि जनवादी अधिकारों की ज़मीन पर खड़े होकर ही जनता अपने तमाम आर्थिक व सामाजिक अधिकारों और अन्तत: व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई ज़्यादा बेहतर तरीक़े से लड़ सकती है। इसीलिए ईवीएम हटाकर एक पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया को सुनिश्चित करना हमारे लिए बेहद ज़रूरी है।
निस्सन्देह, चुनावों में पूँजी के खेल को समाप्त करने के लिए छोटे निर्वाचक मण्डलों के निर्माण, ‘राइट टू रीकॉल’ समेत कई महत्वपूर्ण बुनियादी ढाँचागत बदलावों के लिए लड़ना होगा। इलेक्टोरल बॉण्ड को असंवैधानिक घोषित करते हुए उस पर आला अदालत द्वारा प्रतिबन्ध लगाया जाना एक स्वागतयोग्य क़दम है। लेकिन धन्नासेठों द्वारा चुनावों को धनबल से प्रभावित करने के और भी सैकड़ों रास्ते हैं। एक मुनाफ़ाकेन्द्रित व्यवस्था में चुनावों में धनबल की गहरी दख़ल होती ही है। इससे मौजूदा व्यवस्था के दायरे में पूर्णत: निजात पायी ही नहीं जा सकती। यह दीगर बात है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में पैसे का यह खेल इलेक्टोरल बॉण्ड के द्वारा नग्न और अश्लील तौर पर हो रहा था और इसलिए मौजूदा व्यवस्था के दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए आला अदालत को इस पर कुछ क़दम उठाने पड़े। लेकिन फ़ौरी तौर पर जनता के लिए जो सबसे ज्वलन्त मुद्दा है, वह है ईवीएम हटाकर बैलट पेपर से चुनाव कराने का मुद्दा।
एक बात साफ़ है कि मौजूदा चुनावी व्यवस्था में पारदर्शिता लाने के लिए ईवीएम व्यवस्था को हटाकर बैलट पेपर की व्यवस्था को फिर से लागू करना या वोटर को उसके वोट की पर्ची के साथ सौ प्रतिशत वीवीपैट वेरीफ़िकेशन को लागू करवाना सबसे अहम फ़ौरी सवाल है। यह मौजूदा व्यवस्था में हमारे सबसे अहम जनवादी अधिकार की हिफ़ाज़त का सवाल है।
देश के कई जाने-माने वकील, अवकाशप्राप्त न्यायाधीश, विधिवेत्ता, चुनाव विशेषज्ञ और विपक्षी पार्टियाँ ईवीएम की विश्वसनीयता पर लगातार सवाल उठाती रही हैं, लेकिन गोदी मीडिया की कृपा से उनकी बातें आम लोगों तक नहीं पहुँच पातीं। दूसरी ओर, चुनाव आयोग की बेहद कमज़ोर व अविश्वसनीय सफ़ाइयों का जमकर प्रचार किया जाता है। बुनियादी सवालों को नज़रों से ओझल कर दिया जाता है। ऐसे में, व्यापक अभियान के ज़रिये सच्चाई को जन-जन तक पहुँचाने और ईवीएम हटाने के लिए व्यापक जनान्दोलन संगठित करने के अतिरिक्त और कोई भी रास्ता बचा नहीं रह जाता।
ईवीएम के ख़िलाफ़ 2001 से (यानी यह व्यवस्था लागू होने के भी पहले से) 2017 तक कई राज्यों के हाई कोर्टों और सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएँ दाख़िल हुईं। लेकिन चुनाव आयोग के थोथे-बेमानी तर्कों को स्वीकार करते हुए अदालतों ने यह कहकर इन्हें ख़ारिज कर दिया कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सन्देह नहीं किया जा सकता (क्यों?)। सुप्रसिद्ध न्यूज़ वेबसाइट ‘द वायर’ ने अपने पाँच किस्तों में प्रकाशित लेख ‘इण्डिया ब्लैकबॉक्स्ड’ में ईवीएम पर भी विस्तार से कई वाजिब तकनीकी सवाल उठाये। ‘मिशन सेव कांस्टीट्यूशन’ के महमूद प्राचा, भानु प्रताप सिंह आदि ने, सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशान्त भूषण ने, कई जाने-माने क़ानून विशेषज्ञों ने ईवीएम की सन्दिग्धता के कारणों पर कई बार तथ्यों और तर्कों सहित लिखा और बोला है। लेकिन सरकार और चुनाव आयोग ने इसपर कभी ध्यान नहीं दिया। अभी भी महमूद प्राचा आदि द्वारा दायर एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, लेकिन उसकी सुनवाई करने वाली बेंच से चीफ़ जस्टिस चन्द्रचूड़ ने अपने को अलग कर लिया है, जो अपने आप में शक़ पैदा करने वाला मामला है।
ईवीएम पर भरोसा क्यों नहीं किया जा सकता?
आइये समझते हैं कि ईवीएम पर क्यों भरोसा नहीं किया जा सकता। इस पर्चे के अलावा इस विषय में विस्तार में तर्कों और तथ्यों को जानने के लिए BSJAY की इस विषय पर पुस्तिका को भी पढ़ें।
- दुनिया के अधिकांश वैज्ञानिक-तकनीकी विशेषज्ञों की राय है कि किसी भी इलेक्ट्रॉनिक मशीन को मैनिपुलेट करना या उसके ज़रिये परिणामों में हेरा-फेरी करना नामुमकिन क़तई नहीं है। रिटायर्ड जस्टिस लोकुर के नेतृत्व में गठित जस्टिस लोकुर कमेटी की रिपोर्ट भी साफ़ शब्दों में कहती है कि ईवीएम-वीवीपैट सिस्टम को कई तरह से मैनिपुलेट किया जा सकता है।
- ईवीएम पर सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी ने ही सवाल उठाया था। पार्टी के एक नेता जी वी एल नरसिंहा राव ने 2010 में ‘डेमोक्रेसी ऐट रिस्क, कैन वी ट्रस्ट अवर इलेक्ट्रॉनिक मशीन’ शीर्षक एक पुस्तक लिखी थी जिसकी प्रस्तावना लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी थी। उसमें तेलुगू देशम के एन. चन्द्रबाबू नायडू का एक सन्देश भी छपा था जो आज भाजपा-नीत गठबन्धन में शामिल हो चुके हैं। ईवीएम-विरोधी कई तथ्यों और तर्कों के साथ इस पुस्तक में वोटिंग सिस्टम के एक्सपर्ट स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय के डेविड डिल के इस कथन का भी हवाला दिया गया है कि ईवीएम का इस्तेमाल सुरक्षित और चूकरहित क़तई नहीं हो सकता। पुस्तक में उस मामले का भी उल्लेख है जब हैदराबाद के एक टेक एक्सपर्ट हरिप्रसाद ने मिशीगन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हाल्डरमैन और डच प्रौद्योगिकी कार्यकर्ता गोंगग्रीप के साथ मिलकर ईवीएम को हैक करने का दावा किया था और इन तीनों ने अपनी केसस्टडी पर एक पेपर भी प्रकाशित किया था। यह प्रयोग किसी डमी पर नहीं, बल्कि एक वास्तविक ईवीएम पर किया गया था और सिद्ध किया गया था कि मशीनों में दो तरीक़ों से हेर-फेर किया जा सकता है। जवाब में सरकार ने क्या किया? हरिप्रसाद को तुरन्त अज्ञात स्रोत से वास्तविक ईवीएम की चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया! लेकिन हरिप्रसाद के दावों का कोई जवाब नहीं दिया गया! हरिप्रसाद ने अपना प्रयोग दूसरी पीढ़ी के ईवीएम ‘एम-2’ पर किया था। अब उनका दावा है कि उन्हें मौक़ा दिया जाये तो वह तीसरी पीढ़ी के मौजूदा ईवीएम ‘एम-3’ को भी हैक करके दिखा सकते हैं। लेकिन हरिप्रसाद की बार-बार दी गयी चुनौतियों पर चुनाव आयोग कोई जवाब नहीं देता और रहस्यमयी चुप्पी बनाये रखता है।
- सन्देह पैदा करने वाला एक बहुत बड़ा सवाल यह भी है कि ईवीएम बनाने वाली कम्पनी ‘भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड’ के निदेशक के रूप में भाजपा के चार पदाधिकारी और नामांकित व्यक्ति काम कर रहे हैं। ऐसे में ईवीएम का प्रयोग सीधे ही शक़ के घेरे में आ जाता है। लेकिन इस सवाल पर चुनाव आयोग और मोदी सरकार बिल्कुल चुप हैं। इसी से जुड़ा एक सनसनीखेज़ मुद्दा यह है कि निर्माण स्थल से चुनाव आयोग तक पहुँचने के बीच कुछ उन्नीस लाख ईवीएम मशीनें “ग़ायब” हो गयीं! ऐसा भला कैसे हो सकता है? बिना सरकारी मशीनरी की मिलीभगत के यह असम्भव है। इनके दुरुपयोग का सन्देह इस तथ्य से और भी पक्का हो जाता है कि विगत चुनावों के दौरान ईवीएम मशीनों से लदी भाजपाइयों या सरकारी अधिकारियों की कई गाड़ियाँ आम लोगों और विभिन्न विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं द्वारा पकड़ी जा चुकी हैं। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने 15 मार्च को ईवीएम की जाँच के लिए डाली गयी याचिका को यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि ऐसी याचिकाओं को वह नहीं सुन सकता क्योंकि हर पद्धति के कुछ सकारात्मक व नकारात्मक होते हैं! यह किस प्रकार की दलील है? निश्चित ही हर पद्धति के सकारात्मक व नकारात्मक होते हैं, किसी में समय व धन कम तो किसी में ज़्यादा लगता है, लेकिन अगर किसी पद्धति में नकारात्मक यह है कि वोटिंग में ही घोटाला कर किसी एक पार्टी को जिताया जा रहा है, तो क्या उस पद्धति की जाँच की याचिका को सुना नहीं जाना चाहिए?
- इस तथ्य की भी क़तई अनदेखी नहीं की जा सकती कि एकाध अपवाद को छोड़कर विकसित पश्चिमी देशों सहित दुनिया के अधिकांश देश आज चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल नहीं करते। कई देश ईवीएम का इस्तेमाल करके बैलेट पेपर पर वापस जा चुके हैं। कई देशों की न्यायपालिका विस्तृत जाँच के बाद ईवीएम के इस्तेमाल को सन्दिग्ध, अविश्वसनीय और अवैधानिक घोषित कर चुकी है।
- ग़ौरतलब है कि स्वायत्तशासी निकायों सहित जिन भी चुनावों में बैलेट पेपर से चुनाव हुए, उनमें से अधिकांश में भाजपा के उम्मीदवारों को हार का मुँह देखना पड़ा। चण्डीगढ़ के मेयर चुनाव में भाजपा की हार भी यही दिखाती है। साथ ही, कई राज्यों में हुए हालिया विधानसभा चुनावों में पोस्टल बैलेटों में भाजपा अक्सर ही हारती नज़र आयी।
- इस बात के पक्ष में भी अब पर्याप्त तथ्य और तर्क आ चुके हैं कि वीवीपैट की जोड़ी गयी व्यवस्था भी ईवीएम को सन्देहमुक्त नहीं बनाती। स्वयं भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी और कई विपक्षी नेताओं ने बार-बार यह माँग उठायी कि वीवीपैट से निकली पर्ची मैच कराने के लिए हर वोटर को भी मिलनी चाहिए और इसे एक दूसरे बॉक्स में डालना चाहिए। इसके बाद इसकी गिनती करके ईवीएम के नतीजों से मिलान कराया जाना चाहिए, लेकिन चुनाव आयोग ने इसपर बिल्कुल कान नहीं दिया। क्यों? मतदान से पहले उम्मीदवारों के जनप्रतिनिधियों के सामने ‘मॉक इलेक्शन’ कराया जाता है और 50 वोट डलवाकर हर मशीन की भरोसेमन्दी की जाती है। लेकिन ईवीएम मशीनों का अल्गोरिदम इस तरह सेट किया जा सकता है कि 500 या हज़ार वोट पड़ चुकने के बाद हर दूसरा या तीसरा वोट कमल या निर्धारित चुनाव चिह्न को ही जाये, बटन चाहे जो भी दबाया जाये। अगर ईवीएम बनाने की प्रक्रिया में ही भाजपाइयों को घुसा दिया गया हो, तो सोचिये, भला यह क्यों नहीं सम्भव है? भाजपा वाले कहते हैं कि अगर ईवीएम घोटाला होता तो भाजपा हर जगह जीतती, कहीं भी नहीं हारती। यह बकवास है। ज़ाहिर है कि हर सीट पर यह काम करने की मूर्खता नहीं की जायेगी और इस तिकड़म का सिर्फ़ वहीं इस्तेमाल किया जायेगा जहाँ काँटे की टक्कर हो और हार-जीत का अन्तर कम रहा करता हो। यह अनुमान भी सहज बोध से ही लगाया जा सकता है कि सत्तारूढ़ पार्टी या गठबन्धन ईवीएम की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए कुछ विधानसभा चुनावों में ईवीएम-धोखाधड़ी का इस्तेमाल न करे और उनमें से कुछ हार भी जाये (ऐसे राज्यों में भी भाजपा अक्सर चुनावों के बाद धनबल और ईडी छापेमारी आदि की धमकियों से विधायक तोड़कर, सरकारें गिराकर अपनी सरकारें बना लेती है)। साफ़ है कि ईवीएम की विश्वसनीयता पर उठे सवाल अपनी जगह पर जस के तस बने रहते हैं।
बैलेट पेपर की प्रक्रिया में अधिक समय और अधिक धन लगाने का सरकारी और भाजपाई तर्क निहायत बेमानी है। किसी सरकार के चुनाव में पारदर्शिता और जनता का विश्वास सबसे बड़ी चीज़ है। इस देश में अकेले नेताओं की अतिसुविधा, विलासिता और सुरक्षा पर तथा विशाल नौकरशाही पर जितना अकूत धन ख़र्च होता है, वहाँ चुनाव जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रिया पर कुछ अधिक धन और कुछ अधिक समय ख़र्च हो जाने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
आगामी चुनावों के नतीजे चाहे जो भी हों, इससे ईवीएम की विश्वसनीयता नहीं सिद्ध होती। सत्ता में चाहे फ़ासिस्टों का गठबन्धन आये या अन्य पूँजीवादी चुनावी पार्टियों का, जबतक ईवीएम हटाकर बैलेट पेपर की व्यवस्था बहाल न की जाये तबतक चुनावों की पारदर्शिता पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। जनता को ईवीएम हटाने के लिए संघर्ष चलाना होगा और इसे मज़बूत एवं व्यापक बनाते जाना होगा। अगर हम ऐसा करने से चूकते हैं तो यह एक बड़ी राजनीतिक भूल होगी। अगर नंगी धाँधली भरे चुनावी नतीजों के बाद देशव्यापी उग्र जनउभार की सम्भावना से घबराकर भाजपा इसबार ईवीएम की धाँधलेबाजी न करके दूसरे हथकण्डों का इस्तेमाल करे और यहाँ तक कि किसी आपवादिक स्थिति में अपनी हार भी स्वीकार करने को बाध्य हो जाये, तो भी ईवीएम का इस्तेमाल सन्देह से परे नहीं माना जाना चाहिए। किसी सत्तारूढ़ दल को इसका इस्तेमाल करने का मौक़ा नहीं मिलना चाहिए। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साम्प्रदायिक फ़ासिस्ट भाजपा अगर चुनाव हारती है, तो भी तृणमूल स्तर पर संघ की मशीनरी अपने जनविरोधी साम्प्रदायिक प्रचार को जारी रखेगी और असुरक्षा और अनिश्चितता से तंग आम जनता को साम्प्रदायिक उन्माद से बहकाकर फिर से सत्ता पर कब्ज़ा करने का प्रयास जारी रखेगी। उसको फ़ैसलाकुन शिकस्त देने की लड़ाई एक लम्बी लड़ाई है। लेकिन धोखाधड़ी और फ़रेब का कम से कम एक महत्वपूर्ण हथियार तो उसके हाथ से छीन ही लिया जाना चाहिए: यानी, ईवीएम के ज़रिये चुनाव।
साथियो! इसके लिए हम ईवीएम-विरोधी मुहिम में आपकी सक्रिय भागीदारी की और इसे देशव्यापी जुझारू आन्दोलन बनाने में आप सभी की प्रभावी भूमिका की उम्मीद करते हैं और इसके लिए आपका आह्वान करते हैं।
क्रान्तिकारी अभिवादन सहित
भगतसिंह जनअधिकार यात्रा
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